आज के इस आर्टिकल में मै आपको “सदाचरण की परिवीक्षा पर या भर्त्सना के पश्चात् छोड़ देने का आदेश | दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 क्या है | section 360 CrPC in Hindi | Section 360 in The Code Of Criminal Procedure | CrPC Section 360 | Order to release on probation of good conduct or after admonition” के विषय में बताने जा रहा हूँ आशा करता हूँ मेरा यह प्रयास आपको जरुर पसंद आएगा । तो चलिए जानते है की –
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 | Section 360 in The Code Of Criminal Procedure
[ CrPC Sec. 360 in Hindi ] –
सदाचरण की परिवीक्षा पर या भर्त्सना के पश्चात् छोड़ देने का आदेश-
(1) जब कोई व्यक्ति जो इक्कीस वर्ष से कम आयु का नहीं है केवल जुर्माने से या सात वर्ष या उससे कम अवधि के कारावास से दंडनीय अपराध के लिए दोषसिद्ध किया जाता है अथवा जब कोई व्यक्ति जो इक्कीस वर्ष से कम आयु का है या कोई स्त्री ऐसे अपराध के लिए, जो मृत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय नहीं है, दोषसिद्ध की जाती है और अपराधी के विरुद्ध कोई पूर्व दोषसिद्धि साबित नहीं की गई है तब, यदि उस न्यायालय को, जिसके समक्ष उसे दोषसिद्ध किया गया है, अपराधी की आयु, शील या पूर्ववृत्त को और उन परिस्थितियों को, जिनमें अपराध किया गया, ध्यान में रखते हुए यह प्रतीत होता है कि अपराधी को सदाचरण की परिवीक्षा पर छोड़ देना समीचीन है तो न्यायालय उसे तुरन्त कोई दंडादेश देने के बजाय निदेश दे सकता है कि उसे प्रतिभुओं सहित या रहित उसके द्वारा यह बंधपत्र लिख देने पर छोड़ दिया जाए कि वह (तीन वर्ष से अनधिक) इतनी अवधि के दौरान, जितनी न्यायालय निर्दिष्ट करे. बुलाए जाने पर हाजिर होगा और दंडादेश पाएगा और इस बीच परिशांति कायम रखेगा और सदाचारी बना रहेगा:
परन्तु जहाँ कोई प्रथम अपराधी किसी द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा, जो उच्च न्यायालय द्वारा विशेषतया सशक्त नहीं किया गया है, दोषसिद्ध किया जाता है और मजिस्ट्रेट की यह राय है कि इस धारा द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग किया जाना चाहिए वहाँ वह उस भाव की अपनी राय अभिलिखित करेगा और प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट को वह कार्यवाही निवेदित करेगा और उस अभियुक्त को उस मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा अथवा उसकी उस मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिरी के लिए जमानत लेगा और वह मजिस्ट्रेट उस मामले का निपटारा उपधारा (2) द्वारा उपबंधित रीति से करेगा।
(2) जहाँ कोई कार्यवाही प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट को उपधारा (1) द्वारा उपबंधित रूप में निवेदित की गई है, वहाँ ऐसा मजिस्ट्रेट उस पर ऐसा दंडादेश या आदेश दे सकता है जैसा यदि मामला मूलत: उसके द्वारा सुना गया होता तो वह् दे सकता और यदि वह किसी प्रश्न पर अतिरिक्त जांच या अतिरिक्त साक्ष्य आवश्यक समझता है तो वह स्वयं ऐसी जांच कर सकता है या ऐसा साक्ष्य ले सकता है अथवा ऐसी जांच किए जाने या ऐसा साक्ष्य लिए जाने का निदेश दे सकता है।
(3) किसी ऐसी दशा में, जिसमें कोई व्यक्ति चोरी, किसी भवन में चोरी, बेईमानी से दुर्विनियोग, छल या भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) के अधीन दो वर्ष से अनधिक के कारावास से दंडनीय किसी अपराध के लिए या केवल जुर्माने से दंडनीय किसी अपराध के लिए दोषसिद्ध किया जाता है और उसके विरुद्ध कोई पूर्व दोषसिद्धि साबित नहीं की गई है, यदि वह न्यायालय, जिसके समक्ष वह ऐसे दोषसिद्ध किया गया है, ठीक समझे, तो वह अपराधी की आयु, शील, पूर्ववृत्त या शारीरिक या मानसिक दशा को और अपराध की तुच्छ प्रकृति को, या किन्हीं परिशमनकारी परिस्थितियों को, जिनमें अपराध किया गया था, ध्यान में रखते हुए उसे कोई दंडादेश देने के बजाय सम्यक् भर्त्सना के पश्चात् छोड़ सकता है।
(4) इस धारा के अधीन आदेश किसी अपील न्यायालय द्वारा या उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय द्वारा भी किया जा सकेगा जब वह अपनी पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग कर रहा हो।
(5) जब किसी अपराधी के बारे में इस धारा के अधीन आदेश दिया गया है तब उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय, उस दशा में जब उस न्यायालय में अपील करने का अधिकार है, अपील किए जाने पर, या अपनी पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग करते हुए, ऐसे आदेश को अपास्त कर सकता है और ऐसे अपराधी को उसके बदले में निधि के अनुसार दंडादेश दे सकता है :
परन्तु उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय इस उपधारा के अधीन उस दंड से अधिक दंड न देगा जो उस न्यायालय द्वारा दिया जा सकता था जिसके द्वारा अपराधी दोषसिद्ध किया गया था।
(6) धारा 121, 124 और 373 के उपबंध इस धारा के उपबंधों के अनुसरण में पेश किए गए प्रतिभुओं के बारे में जहाँ तक हो सके, लागू होंगे।
(7) किसी अपराधी के उपधारा (1) के अधीन छोड़े जाने का निदेश देने के पूर्व न्यायालय अपना समाधान कर लेगा कि उस अपराधी का, या उसके प्रतिभू का (यदि कोई हो) कोई नियत वास स्थान या नियमित उपजीविका उस स्थान में है जिसके संबंध में वह न्यायालय कार्य करता है या जिसमें अपराधी के उस अवधि के दौरान रहने की सम्भाव्यता है, जो शर्तों के पालन के लिए उल्लिखित की गई है।
(8) यदि उस न्यायालय का, जिसने अपराधी को दोषसिद्ध किया है, या उस न्यायालय का, जो अपराधी के संबंध में उसके मूल अपराध के बारे में कार्यवाही कर सकता था, समाधान हो जाता है कि अपराधी अपने मुचलके की शर्तों में से किसी का पालन करने में असफल रहा है तो उसके पकड़े जाने के लिए वारण्ट जारी करा सकता है।
(9) जब कोई अपराधी ऐसे किसी वारण्ट पर पकड़ा जाता है तब वह वारण्ट जारी करने वाले मजिस्ट्रेट के समक्ष तत्काल लाया जाएगा और वह न्यायालय या तो तब तक के लिए उसे अभिरक्षा में रखे जाने के लिए प्रतिप्रेषित कर सकता है जब तक मामले में सुनवाई न हो, या इस शर्त पर कि वह दंडादेश के लिए हाजिर होगा, पर्याप्त प्रतिभूति लेकर जमानत मंजूर कर सकता है और ऐसा न्यायालय मामले की सुनवाई के पश्चात् दंडादेश दे सकता है।
(10) इस धारा की कोई बात, अपराधी परिवीक्षा अधिनियम, 1958 (1958 का 20) या बालक अधिनियम, 1960 (1960 का 60) या किशोर अपराधियों के उपचार, प्रशिक्षण या सुधार से संबंधित तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के उपबंधों पर प्रभाव न डालेगी।